क्यों तन्हा, अंजाना सा, मेरा अस्तित्व नज़र आता है,
जैसे उडती हवा में भी वो पत्ता न उड़ पाता है,
खेलती, चेह्कती, पर फिर भी गुमसुम सी, जैसे कोई चिड़िया हूँ,
या किसी पहेली की अनसुलझी कडिया हूँ,
क्यों ऐसा, अलबेला सा, मेरा चरित्र नज़र आता है,
क्यों तन्हा, अंजाना सा, मेरा अस्तित्व नज़र आता है ...
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