Thursday, April 28, 2011

मेरा अस्तित्व नज़र आता है

क्यों तन्हा, अंजाना सा, मेरा अस्तित्व नज़र आता है,
जैसे उडती हवा में भी वो पत्ता न उड़ पाता है,
खेलती, चेह्कती, पर फिर भी गुमसुम सी, जैसे कोई चिड़िया हूँ,
या किसी पहेली की अनसुलझी कडिया हूँ,
क्यों ऐसा, अलबेला सा, मेरा चरित्र नज़र आता है,
क्यों तन्हा, अंजाना सा, मेरा अस्तित्व नज़र आता है ...

Monday, April 11, 2011

पता ही नहीं ...


चौराहे पे ज़िन्दगी, राहे नयी, मंजिल नहीं,
रहबरों की बातो का भरोसा नहीं, खुद को रास्तो का पता नहीं,
जिन गलियों के निशान याद थे आज तक, उन मेह्फुस सडको पे अब कोई जाता नहीं,
गिरते सँभालते, घुट घुट के ही सही, ज़िन्दगी की डगर अभी ढूंढी ही नहीं ...

Saturday, April 9, 2011

यूँ भी जी के देखा है ...

बे-बुनियादी दर्क्तो पे चढ़ के देखा है,
बिन पंखो के भी उड़ के देखा है,
बे-परवा उसूलो के घने बन्धनों में रहकर देखा है,
बिन दिए के रोशिनी होते देखा है,
बे-इन्तहा रास्तो पे चल के देखा है,
बिन कारवां के मंजिलो पे पहुचते देखा है,
बे-हिसाब पीकर भी रहकर देखा है,
बिन पिए भी बहुत कुछ कहकर देखा है,
बे-फ़िक्र मुस्किलो में किस्मत से लड़ के देखा है,
तो फिर कभी बिन जिए भी जी के देखी है ...